फिल्म समीक्षा -राजेश कुमार भगताणी
निर्माता : अनुराग कश्यप
निर्देशक : विजय नांबियार
कलाकार : कल्कि कश्यप, शिव पंडित, रजत कपूर, पवन मल्होत्रा, रूखसार, अभिजीत देशपांडे, राजीव खण्डेलवाल
अनुराग कश्यप फिल्म उद्योग में ऎसे फिल्मकार के रूप में सामने आए हैं जिनका सिनेमा व्यावसायिक और कला सिनेमा के विपरीत चलता है। जहां किरदारों में विरोधाभास देखने को मिलता है। उनकी देव डी और गुलाल ऎसी ही फिल्में रही हैं। अनुराग आजकल उन लेखक निर्देशकों के लिए सीढ़ी बनने का प्रयास कर रहे हैं जिनको बॉलीवुड में कोई निर्माता नहीं मिल रहा। जिनका सिनेमा अपने तरीके का है और जो अनुराग के विचारों से मेल खाता है।
शायद इसी सोच के कारण अनुराग और विजय नांबियार का मिलन हुआ है। विजय नांबियार की शैतान की पटकथा उलझी हुई है लेकिन उन्होंने अलग ही तरीके से इसे परदे पर पेश किया है। इस कहानी में उन्होंने पुलिस डिपार्टमेंट की खामियों, खूबियों के साथ आज के युवाओं की अपने माता-पिता के साथ बढ़ती दूरियों का खूबसूरती से चित्रण किया है।
इस पेचीदा कथानक में हालांकि मध्यान्तर के बाद कुछ ऎसे रोचक मोड हैं जो दर्शकों को अन्त तक फिल्म देखने को मजबूर करते हैं। लेकिन यह सिनेमा आम आदमी का नहीं है। यह उन लोगों का सिनेमा है जिनके लिए जिन्दगी बोरिंग हैं और उबाऊ है जो हर रोज नए घटनाक्रम से रूबरू होना चाहते हैं। यह उन लोगों के लिए है जो जोखिम उठाना पसन्द करते हैं और जिन्हें दब्बू और संस्कारों में पला नौजवान ईष्र्या की दृष्टि से देखता है। फिल्म का कथानक पांच ऎसे शहरी युवाओं का है जिनकी जिन्दगी रोमांचक घटनाओं से भरी होती है। इससे वे दूसरों को आकर्षित करते हैं। जो दुनिया को अपनी घटनाओं से नए रूपों में संवारते हैं। खतरा लेना जिनकी फितरत है जो जानते हैं कि फिसले तो समझो गए। विजय नांबियार की शैतान की यही कहानी है। इन किरदारों में कुछ अमीर और कुछ मध्यमवर्गीय परिवारों से हैं। इन सभी के जीवन में कहीं न कहीं कोई कमी है जिसे पूरा करने के लिए ये &द्दह्ल;नशा, दारू, पार्टी और सैक्स में लीन रहते हैं।
अपने करियर में अब तक अनुराग कश्यप ने जितनी भी फिल्में बनाई हैं उससे उनका एक दर्शक समूह बन गया है, जो उनके नाम पर फिल्म देखने आता है। बतौर निर्देशक बिजय नांबियार का निर्देशन कमाल का है। उन्होंने अपने सम्पादक की सहायता से फिल्म को पूरी तरह से दर्शनीय बनाया है। हालांकि कुछ तकनीकी कमियों के कारण जरूर यह अखरती है खासकर किरदारों का आपस में फुसफुसा कर बोलना जो दर्शकों को समझ में नहीं आता है।
उन्होंने कलाकारों से अच्छा काम लिया है, बल्कि कहानी की गति को तेज रफ्तार भी दी है जिससे फिल्म का रोमांच बढ जाता है। वास्तविक स्थलों पर दृश्यों के फिल्मांकन की वजह से फिल्म में वास्तविकता दिखाई देती है। देवआनन्द की काला बाजार की क्लासिक गीत खोया-खोया चांद खिला आसमां आंखों में सारी रात जाएगी... का उन्होंने अच्छा उपयोग किया है। तकनीकी तौर पर बिजॉय का शॉट लेने का अंदाज काबिले तारीफ है। उन्होंने जिस अंदाज में स्लो मोशन का उपयोग किया है वह तो देखते ही बनता है। अगर इस फिल्म के सम्पादक एमी (कल्कि) के अतीत को बार-बार नहीं दोहराते तो फिल्म की पकड और मजबूत होती। जयपुर से टीवी जगत और फिर आमिर के जरिए बॉलीवुड में पहचान बनाने वाले राजीव खण्डेलवाल का अभिनय सारे कलाकारों में सर्वश्रेष्ठ है। फिल्म की फोटोग्राफी उम्दा है। कैमरामैन ने रात के धूसर अंधेरे में दृश्यों को जीवंतता के साथ कैमरे में कैद किया है। अपने अनूठे प्रस्तुतीकरण और थ्रिल की वजह से शैतान एक अलग हटकर बनी फिल्म है जिसे आप मसाला फिल्मों से अलग रखकर देखना पसन्द कर सकते हैं।
Monday, June 13, 2011
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